कभी-कभी
मन करता है
लौटा लूँ वह धारा
जो मेरी धमनियों से होकर बही है
और पा लूँ वह खुशी
जो कभी
मेरे कदमों में झुकी रहती थी।
कभी-कभी मन करता है
सारी शिकवा-शिकायत
ताख पर रखकर
करने लग जाऊँ फिर से तुमसे प्यार,
बहा दूँ
तुम्हारे फेंके सारे पत्थर
गंगा में।
कभी-कभी मन करता है
पड़ा रहूँ
अपने ही हाल पर।